Biology Mantra

Sunday, September 27, 2020

पुष्पीय पौधों में निषेचन(Fertilization in flowering plants)

पुष्पीय पौधों में निषेचन(Fertilization in flowering plants)

 जनन की प्रक्रिया में नर एवं मादा युग्मकों के आपस में मिलने की क्रिया को निषेचन कहा जाता है| निषेचन के फल-स्वरुप भ्रूण बनता है| पुष्पीय पौधों में यह क्रिया निम्न प्रकार से होती है:
(1) पराग कणों का वर्तिकाग्र पर अंकुरण-
परागण के समय परागकण वर्तिकाग्र पर पहुंचकर वातावरण व वर्तिकाग्र से नमी अवशोषित कर अंकुरण करना शुरू कर देते हैं| अंकुरण के द्वारा परागकणों से पराग नलिका निकलनी शुरू हो जाती है| यह पराग नलिका वर्तिका से होती हुई अंडाशय तक पहुंचती है| इसी पराग नलिका से होते हुए दोनों नर युग्मक भी अंडाशय के बीजाण्ड के पास पहुँच जाते हैं|
(2) पराग नली का बीजांड में प्रवेश-
पराग नली का बीजांड में प्रवेश तीन अलग-अलग स्थानों से होता है:
(a) अंडद्वारी प्रवेश(porogamy) ---> अंडद्वार से प्रवेश होता है
(b) निभागी प्रवेश(chalazogamy) ----> निभाग से प्रवेश होता है
(c) मध्य प्रवेश(mesogamy)-----> अध्यावरणों से प्रवेश होता है
(3) पराग नलिका का भ्रूणकोश  में प्रवेश-
पराग नलिका वर्तिका से होकर भ्रूणकोश  तक पहुंचने के लिए बीजांडकाय में से प्रवेश करती है| यह निम्नलिखित तीन प्रकार से होती है-
(a) अंड कोशिका का एक सिनरजिड के बीच में से 
(b)भ्रूणकोश की भित्ति व एक सिनरजिड  के बीच में से
(c) एक सिनरजिड को बेधकर उसमें से प्रवेश करती है
(4) नर एवं मादा युग्मकों का समेकन-
भ्रूणकोश में प्रवेश करने के बाद पराग नलिका का सिरा घुलकर विघटित हो जाता है| नर युग्मक भ्रूणकोश में स्वतंत्र हो जाते हैं| भ्रूणकोश में मुक्त होने के बाद एक नर युग्मक अंड कोशिका से संलग्न हो जाता है| वास्तव में यही लैंगिक क्रिया है, जिसे सत्य निषेचन कहते हैं| दूसरा नर युग्मक भ्रूणकोश के केंद्र में स्थित द्वितीयक केंद्रक (ध्रुवीय कोशिकाओं) से संलयन करता है| इस क्रिया को त्रिक संलयन कहते हैं| इस प्रकार निषेचन की क्रिया पूरी हो जाती है|

द्विनिषेचन या दोहरा निषेचन(Double fertilization)-
पुष्पीय पौधों में एक ही भ्रूणकोश में दो बार निषेचन होता है| पहला नर युग्मक अंड कोशिका से मिलता है जिसे सत्य निषेचन कहते हैं| परंतु दूसरा नर युग्मक ध्रुवीय केंद्रकों के साथ मिलता है| अतः क्योंकि निषेचन की प्रक्रिया दूसरी बार हो रही है इसलिए इसे द्विनिषेचन या दोहरा निषेचन कहा जाता है|
द्विनिषेचन का महत्व-
द्विनिषेचन का अध्ययन सर्वप्रथम नवाशीन  ने सन 1898 में किया था तथा बताया कि द्विनिषेचन के फल-स्वरुप भ्रूणपोष बनता है| यह भ्रूणपोष ही बढ़ते हुए भ्रूण का पोषण करता है जिसके कारण भ्रूण का विकास होता है|

परागण(Pollination)

      परागण(Pollination) 
किसी पुष्प के पुंकेसर से उसी पुष्प या उसी जाति के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणों के पहुंचने की क्रिया को परागण कहते हैं| परागण प्राकृतिक या प्रेरित दोनों प्रकार का हो सकता है, किंतु अप्राकृतिक या प्रेरित परागण को संकरण कहते हैं|
              प्राकृतिक परागण दो प्रकार का होता है:
(1) स्वपरागण (self-pollination)
(2) पर परागण (cross-pollination)

(1) स्वपरागण (self-pollination)-
स्वपरागण में एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र या उसी पौधे के अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| स्व-परागण की क्रिया केवल उभयलिंगी पुष्पों में ही संभव है| स्वपरागण दो प्रकार का हो सकता है:
(a) एक द्विलिंगी पुष्प के परागकण, उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं|
(b) एक पौधे के पुष्प (चाहे एकलिंगी पुष्प हो या द्विलिंगी) के परागकण उसी पौधे के दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| इस प्रकार के स्वपरागण को सजातपुष्पी या जीटोनोगेमी(Geitonogamy) परागण कहते हैं|
स्वपरागण के लिए पौधों में युक्तियां या अनुकूलन-
स्वपरागण को सफल बनाने के लिए पौधों में निम्नलिखित युक्तियां या साधन पाए जाते हैं-
(1) द्विलिंगता(Bisexuality or Hermaphrodite)
(2) सहपक्वता या समकालपक्वता(Homogamy)
(3) निमीलता(Cleistogamy)

(1) द्विलिंगता(Bisexuality or Hermaphrodite)-
 द्विलिंगी पुष्प में नर तथा मादा जननांग एक ही पुष्प में होते हैं| एकलिंगी पौधों में स्व परागण का प्रश्न ही नहीं उठता|
(2) सहपक्वता या समकालपक्वता(Homogamy)-
स्वपरागण के लिए द्विलिंगी पुष्प में नर तथा मादा जननांग एक साथ परिपक्व होते हैं इसको सहपक्वता कहते हैं|
(3) निमीलता(Cleistogamy)-
कुछ द्विलिंगी पुष्प ऐसे होते हैं जो कभी नहीं खिलते इन पुष्पों को क्लिस्टोगेमस पुष्प कहते हैं| ऐसे पुष्पों में बंद अवस्था में ही परागकोश फट जाते हैं जिससे परागकण पुष्प के वर्तिकाग्र पर बिखर जाते हैं और स्वपरागण हो जाता है|

(2) पर परागण (cross-pollination)
परपरागण में एक पुष्प के परागकण उसी जाति के दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| अतः दोनों पुष्प दो अलग-अलग पौधों पर लगे रहते हैं चाहे वे एकलिंगी हो या द्विलिंगी| परपरागण क्रिया का मुख्य लक्षण यह है कि इसमें बीज उत्पन्न करने के लिए एक ही जाति के दो पौधों का होना आवश्यक है|
परपरागण की विधियां-
परागकणों को दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र तक पहुंचाने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता होती है| यह साधन है वायु, जल तथा जंतु| वायु तथा जल अजैविक कारक हैं तथा जंतु, परागण के जैविक कारक है| इनके आधार पर परपरागण निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है| 
(1) वायु परागण 
(2) जल परागण 
(3) जंतु परागण

(1) वायु परागण -
पुष्पों में वायु द्वारा होने वाले परपरागण को वायु परागण और पुष्पों को वायुपरागित पुष्प कहते हैं|
(2) जल परागण -
जल परागण केवल जलीय पौधों में मिलता है यह निम्नलिखित दो प्रकार से होता है-
(a) अधोजल परागण या हिपोहाइड्रोफिली
 इनमें परागण की क्रिया जल के भीतर होती है| जैसे- सिरेटोफिल्लम 
(b) अधिजल परागण या इपहाइड्रोफिली
 परागण जल की सतह पर होता है| जैसे- हाइड्रिला
(3) जंतु परागण-
पुष्पों में जंतुओं द्वारा होने वाले परागण को जंतु परागण कहते हैं| जंतु परागण साधारणतया  कीटों, पक्षियों, चमगादड़ों  या घोंघो द्वारा होता है| इस आधार पर यह निम्न प्रकार का होता है-
(a) कीट परागण 
(b) पक्षी परागण 
(c) घोघा परागण 
(d) चींटी परागण 
(e) चमगादड़ परागण

Monday, September 21, 2020

गुरुबीजाणुजनन(Megasporogenesis)

गुरुबीजाणुजनन(Megasporogenesis)-
गुरु बीजाणु मातृ कोशिका से अर्धसूत्री विभाजन के उपरांत गुरुबीजाणु बनने की क्रिया को गुरु बीजाणु जनन कहते हैं| बीजांड का परिवर्धन बीजांडासन की सतह पर एक छोटे से शंक्वाकार उभार के रूप में होता है| इस उभार की समस्त कोशिकाएं एक ही प्रकार की व मेरिस्टमैटिक होती हैं| उभार तेजी से वृद्धि करके कोशिकाओं की एक संरचना  बनाता है जिसे बीजांडकाय कहते हैं| इसके आधार अर्थात निभाग की ओर से अध्यावरण बनते हैं| शीर्ष की ओर से दोनों अध्यायवरण एक दूसरे से अलग हो जाते हैं| वहां बीच में एक छिद्र बन जाता है जिसे बीजांडद्वार कहते हैं|
        बीजांड या गुरुबीजाणुधानी की प्रारंभिक अवस्था में ही बीजांडकाय के शीर्ष की ओर एपिडर्मिस के ठीक नीचे की ओर एक कोशिका अन्य कोशिकाओं की अपेक्षा आकार में बड़ी होकर प्राथमिक आर्कीस्पोरियल कोशिका बनाती हैं| इस कोशिका का कोशिकाद्रव्य सघन तथा केन्द्रक अधिक स्पष्ट होता है| यह विभाजित होकर बाहर की ओर प्रारंभिक भित्तीय कोशिका और अंदर की ओर गुरुबीजाणुजनन कोशिका बनाती है| भित्तीय कोशिका 1, 2 या कई बार विभाजित होकर भित्तीय ऊतक बनाती है किंतु कभी-कभी अविभाजित भी रहती है| अब गुरुबीजाणु मातृ कोशिका द्वारा चार अगुणित गुरुबीजाणु कोशिकाएं बनाती हैं| यह चारों कोशिकाएं एक रैखिक चतुष्क  में रहती हैं| इनमें से सबसे नीचे की कोशिका आकार में बड़ी होकर सक्रिय गुरुबीजाणु कोशिका बनाती है और ऊपर कि शेष तीनों कोशिकाएं विघटित हो जाती हैं| सक्रिय गुरुबीजाणु कोशिका भ्रूणकोष या मादा युग्मकोद्भिद में परिवर्तित होती है|

मादा गैमीटोफाइट या मादा युग्मकोद्भिद या भ्रूणकोश(Female Gametophyte or Embryo sac)-
 क्रियाशील गुरुबीजाणु जनन कोशिका मादा युग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका है| यह अर्धसूत्री विभाजन द्वारा चार अगुणित गुरुबीजाणु कोशिकाएं बनाती है| इनमें से सबसे नीचे की कोशिका आकार में बड़ी होकर सक्रिय गुरुबीजाणु कोशिका बनाती है और ऊपर कि शेष तीनों कोशिकाएं नष्ट हो जाती है|
         सक्रिय गुरुबीजाणु परिवर्धन करके भ्रूणकोश या मादा युग्मकोद्भिद  में विकसित हो जाता है| इसका केंद्रक एक समसूत्री विभाजन द्वारा दो संतति केंद्रक बनाता है| ये विपरीत ध्रुवों पर आ जाते हैं|दो बार विभाजित होने पर प्रत्येक संतति केंद्रक से दोनों ध्रुवों पर 4 केंद्र बन जाते हैं|इस प्रकार भ्रूणकोश में 8 केंद्रक हो जाते हैं| प्रत्येक ध्रुव से एक-एक केंद्रक भ्रूणकोश के बीच में आ जाता है| ये ध्रुव केंद्रक कहलाते हैं| समेकित होकर ये  द्वितीयक केंद्रक बनाते हैं| बीजांडद्वार की ओर स्थित तीनों केंद्रक कोशिका भित्ति से घिर जाते हैं और अंड समुच्चय बनाते हैं| अंड समुच्चय के बीच स्थित कोशिका अंड कोशिका या अंडाणु  कहलाती है और पार्श्व  में स्थित फ्लास्क के समान दोनों कोशिकाएं सहायक कोशिकाएं कहलाती  हैं| इनके विमुख सिरे निभाग की ओर स्थित तीनों केंद्रक तीन प्रतिमुख कोशिकाएं या एंटीपोडल कोशिकाएं बनाते हैं| अतः एक पूर्ण विकसित प्रारूप आवृत्तबीजी भ्रूणकोश में 7 कोशिकाएं होती हैं|

Sunday, September 20, 2020

स्त्रीजननांग या जायांग(Gynoecium or pistil)

स्त्रीजननांग या जायांग(Gynoecium or pistil)

(1) स्त्रीजननांग या जायांग   की संरचना  (Structure of Gynoecium or pistil)-
स्त्री जननांगों को जायांग कहते हैं| यह एक या अधिक अंडपो से मिलकर बनता है| एक प्रारूपी अंडप में तीन भाग दिखाई देते हैं: अंडाशय, वर्तिका तथा वर्तिकाग्र| आधार का फूला हुआ भाग अंडाशय कहलाता है इनमें एक या अधिक बीजांड होते हैं| अंडाशय से लगी हुई एक पतली व वृंत के समान वर्तिका होती है| वर्तिका के शीर्ष पर गोल चिपचिपा वर्तिकाग्र होता है| मादा युग्मकोद्भिद बीजांड के अंदर भ्रूणकोष के रूप में विकसित होता है|

(2) बीजांड या गुरुबीजाणुधानी(Ovule or Megasporangium)-
पूर्ण विकसित बीजांड बीजांडवृन्त द्वारा प्लेसेंटा या बीजांडासन से जुड़ा हुआ होता है| जिस स्थान पर बीजांडवृंत बीजांडासन से जुड़ा रहता है नाभिका कहलाता है| बीजांड का मुख्य शरीर बीजांडकाय कहलाता है| यह आवरणो से घिरा होता है जिन्हें अध्यावरण कहते हैं| बीजांडकाय का आधार जहां से अध्यायवरण निकलते हैं निभाग कहलाता है| अध्यावरणो के आधार पर एक छोटा छिद्र होता है जिसे बीजांडद्वार कहते हैं| बीजांडकाय में बीजांडद्वार की ओर दबी हुई अंडाकार रचना होती है जिसे भ्रूणकोश कहते हैं| यह मादा युग्मकोद्भिद को प्रदर्शित करता है|
(3) बीजांडो के प्रकार(Types of Ovules)-
बीजांडद्वार, निभाग एवं बीजांडवृंत के आधार पर बीजांड निम्न प्रकार के होते हैं-
(1) ऑर्थोट्रोपस-       
इस प्रकार का बीजांड सीधा होता है अर्थात इसमें बीजांडद्वार, निभाग तथा बीजांडवृंत तीनों एक ही लाइन में होते हैं|

  (2)एनाट्रोपस-
 इसमें बीजांड उल्टा होता है| यह बीजांडवृंत  के अधिक वृद्धि करने के कारण होता है जिससे बीजांडद्वार नीचे की ओर बीजांडवृंत के पास आ जाता है| इसमें केवल बीजाण्डद्वार तथा निभाग ही एक सीधी रेखा पर स्थित होते हैं|

(3) हेमीट्रोपस-
इस प्रकार के बीजांड में बीजांडद्वार तथा निभाग एक सीधी क्षैतिज रेखा में स्थित होते हैं तथा बीजांडवृंत बीजांड के मध्य में एक समकोण बनाता हुआ जुड़ा रहता है|

(4) कैंपाइलॉट्रोपस- 
इस प्रकार का बीजांड कुछ मुड़ा हुआ होता है इसके फलस्वरुप बीजांडद्वार तथा निभाग दोनों एक सीधी रेखा में न होकर बीजांडवृंत के समीप आ जाते हैं|

(5) एम्फीट्रोपस-
 इसमें बीजांड अनुप्रस्थ अवस्था में बीजांडवृंत के साथ समकोण बनाता है तथा भ्रूणकोष घोड़े की नाल के समान मुड़ जाता है|

(6) सर्सिनोट्रोपस-
 इस प्रकार के बीजांड में बीजांडवृंत लंबा होकर बीजांड को चारों ओर से घेरे रहता है|

Tuesday, September 15, 2020

लघुयुग्मकजनन तथा नर युग्मकोद्भिद(Microgametogenesis and Male gametophyte)

लघुयुग्मकजनन तथा नर युग्मकोद्भिद(Microgametogenesis and Male gametophyte) 
पराग कोष में लघुबीजाणुजनन या कोशिकाओं के अर्धसूत्री विभाजन के बाद बने अगणित लघुबीजाणु या परागकण, नर युग्मकोद्भिद या गैमीटोफाइट की प्रथम संरचना है|
        परागकण, परागकोष से मुक्त होने से पूर्व ही अंकुरण करना शुरू कर देता है| इसका केंद्रक समसूत्री विभाजन द्वारा एक बड़े ट्यूब केंद्रक या कायिक केंद्रक तथा एक छोटे जनन केंद्रक में विभाजित हो जाता है| जनन केंद्रक लेंस के समान होता है और दोनों केंद्रक स्वतंत्र रूप से कोशिका द्रव्य में तैरते हैं| परागकण प्रायः इसी अवस्था में परागकोष से मुक्त होकर वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| इसका और अधिक परिवर्धन वर्तिकाग्र पर पहुंचने पर ही होता है|
         जैसे-जैसे परागकण अंकुरण करता है, पराग नलिका किसी एक जनन छिद्र  को बेध कर बाहर आ जाती है| इसमें आगे की ओर ट्यूब केंद्र तथा पीछे की ओर जनन केंद्रक होता है| जनन केंद्र समसूत्री विभाजन द्वारा दो नर युग्मकों में विभाजित हो जाता है| जनन केंद्र के पुंयुग्मकों में विभाजन की क्रिया को शुक्रजनन कहते हैं| पुंयुग्मकों  के निर्माण के शीघ्र बाद ट्यूब (नलिका) केंद्रक  विलुप्त हो जाता है क्योंकि निषेचन में इसका कोई महत्व नहीं होता है| परागकण (लघुबीजाणु) और उसके अंकुरण से बनी  परागनलिका को नरयुग्मकोद्भिद या गैमीटोफाइट कहते हैं|

Monday, September 14, 2020

लघुबीजाणुजनन(Microsporogenesis)

लघुबीजाणुजनन(Microsporogenesis) 
लघुबीजाणुजनन में प्रत्येक लघुबीजाणु मातृ कोशिका में अर्धसूत्री विभाजन के बाद चार अगुणित लघुबीजाणु बनते हैं| ये  चारों लघुबीजाणु विभिन्न प्रकार से चतुष्को के रूप में जुड़े रहते हैं| ये चतुष्क  निम्न  पांच प्रकार के होते हैं| जैसे- 
(a) रैखिक (linear )
 (b) समद्विपार्श्विक (isobilateral )
(c) क्रॉसित (decussate)
(d) T- आकारीय (T- shaped )
(e) चतुष्कफलकीय (tetrahedral)
 चतुष्क से चारों परागकण अलग हो जाते हैं|  कुछ पौधों में यह परागकण अलग नहीं होते हैं तथा संयुक्त रुप से एक साथ रहते हैं | जैसे - मदार में परागकोष के सभी चतुष्क इकट्ठे हो जाते हैं, जिसे परागपिण्ड ( pollinium ) कहते हैं |

परागकण या लघुबीजाणु की संरचना-
प्रत्येक परागकण या लघुबीजाणु एक अतिसूक्ष्म संरचना है जिसका व्यास   0.025mm से 0.115 तक होता है| यह एक कोशिकीय रचना है| जिसके चारों ओर द्विस्तरीय बीजाणु-भित्ति होती है| भीतरी स्तर पतला व लचीला होता है इसे अन्तः चोल(intine ) कहते हैं| बाह्य स्तर मोटा,दृढ, भंगुर व क्यूटिनयुक्त होता है| इसे बाह्य चोल (exine) कहते हैं| बाह्य चोल विभिन्न रूपों में होता है| यह  मस्सेदार, शूलमय या जालिका रूपी होता है| बाह्य चोल पर एक या अधिक वृत्ताकार धब्बे से होते हैं जिनको जनन छिद्र कहते हैं|
 परागकण या लघुबीजाणु के अंकुरण करने पर परागनलिका इन्हीं छिद्रों द्वारा बाहर निकलती है| एकबीजपत्रियों  में केवल 1 जनन छिद्र होता है जबकि रेननकुलस में 15-30 तक जनन छिद्र  होते हैं|
 परागकण के बाह्य चोल में स्पोरोपोलेनिन नामक पॉलिसैकेराइड होता है| यह भौतिक, रासायनिक एवं जैवीय अपघटन के लिए प्रतिरोधी होता है| इसी कारण परागकण जीवाश्म के रूप में परिरक्षित रह सकते हैं|

Friday, September 11, 2020

लघुबीजाणुधानी (परागकोश) तथा नर युग्मकोद्भिद [Microsporangium (pollen sac) and male gametophyte]

लघुबीजाणुधानी (परागकोश)  तथा नर युग्मकोद्भिद [Microsporangium (pollen sac) and male gametophyte] 

(1) लघु बीजाणु धानी या माइक्रोस्पोरेंजियम( Microsporangium)-
तरुण परागकोष के अनुप्रस्थ काट में दो पालिया दिखाई देती हैं और प्रत्येक पाली में दो लघुबीजाणुधानी या परागकोष दिखाई देते हैं| अतः प्रत्येक पराग कोष में 4 लघुबीजाणुधानियाँ (परागकोष) होती  हैं| 
प्रत्येक लघुबीजाणुधानी में कई लघुबीजाणु जनन कोशिकाएं होती हैं| इनके चारों ओर पोषक कोशिकाओं का एक स्तर होता है जिसे टेपीटम कहते हैं| टेपीटम के बाहर की ओर बीजाणुधानी की दीवार होती है जो कोशिकाओं के कई स्तरों की बनी होती है| इसका बाह्य स्तर जो कि एपिडर्मिस के ठीक नीचे होता है, एंडोथीसियम कहलाता है| इसकी कोशिकाओं पर पट्टिकाओं के समान तंतुवत उभार होते हैं| प्रत्येक लघु बीजाणु जनन कोशिका अर्धसूत्री विभाजन द्वारा लघुबीजाणुअों का निर्माण करती हैं|

(2) लघुबीजाणुधानी या परागकोष का परिवर्धन-
परिवर्धन की प्रारंभिक अवस्था में लघुबीजाणुधानी परागकोष की मेरिस्टमैटिक कोशिकाओं से बनी एक रचना होती है| इसके चारों ओर एपिडर्मिस का एक स्तर होता है| इसके बाद यह चार पालिमय हो जाती है जिसकी प्रत्येक पाली में आर्किस्पोरियल कोशिकाओं की  एक लंबवत कतार विकसित हो जाती है| आर्कीस्पोरियल कोशिकाओं का कोशिका द्रव्य अन्य कोशिकाओं की अपेक्षा अधिक सघन होता है और इनके केंद्रक भी अधिक स्पष्ट होते हैं| प्रत्येक आर्कीस्पोरियल कोशिका दो कोशिकाओं में विभाजित हो जाती है| इसमें से बाहरी एपिडर्मिस की ओर स्थित कोशिका प्राथमिक भित्तीय कोशिका और अंदर की कोशिका प्राथमिक बीजाणु जनन कोशिका कहलाती है| अब प्रत्येक प्राथमिक भित्तीय कोशिका विभाजन करके कोशिकाओं की 3-5 परतें बना लेती हैं| यह परागकोष या लघुबीजाणुधानी की दीवार बनाती हैं| इसी बीच बीजाणु जनन कोशिका भी विभाजन शुरु कर देती है जिससे मध्य भाग में कई बीजाणु जनन कोशिकाएं बन जाती हैं| भित्तीय कोशिकाओं की सबसे भीतरी परत जो बीजाणु जनन कोशिका से सटी होती हैं टेपीटम बनाती हैं| यह पोषक स्तर है जो वर्धन करते हुए लघुबीजाणुओं का पोषण करता है| एपिडर्मिस के ठीक नीचे स्थित भित्तीय कोशिकाएं एंडोथीशियम बनाती हैं| इसकी कोशिकाओं की भित्तीयां प्रायः  तंतुवत  रूप से स्थूलित होकर परिपक्व पराग कोष के चारों ओर शुष्क आवरण बनाती हैं| एंडोथीशियम परागकोष के स्फुटन  में सहायता करता है| एंडोथीशियम और टेपीटम के बीच कोशिकाओं के 1-3 मध्य स्तर होते हैं| बीजाणुजनन कोशिकाओं में अर्धसूत्री विभाजन के समय टेपीटम व् मध्य स्तर नष्ट हो जाते हैं|
परिपक्व परागकोष की संरचना -
यह कोशिका भित्ति और पराग प्रकोष्ठ से बना होता है| परागकोष की भित्ति विभिन्न परतों से बनी होती है-
(1) बाह्य त्वचा -
यह एक कोशिकीय बाहरी परत है|
(2) एंडोथीशियम -
यह भी एक कोशिकीय परत है परंतु इसकी कोशिकाएं बड़ी होती हैं|
(3) मध्य परतें- 
 यह 3-5 परतों की कोशिकाएं होती हैं| यह एंडोथीशियम के भीतर की तरफ होती हैं|

(4) टेपीटम -
यह मध्य परतो के बाद लघुबीजाणु मातृ  कोशिकाओं से सटी होती हैं| इसका मुख्य कार्य लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं का पोषण करना होता है|
(5)पराग प्रकोष्ठ-
इसमें लघुबीजाणु मातृ  कोशिकाओं का निर्माण होता है| मातृ कोशिकाओं में अर्धसूत्री विभाजन के बाद लघुबीजाणु या परागकण का निर्माण होता है|