Biology Mantra: परागण(Pollination)

Sunday, September 27, 2020

परागण(Pollination)

      परागण(Pollination) 
किसी पुष्प के पुंकेसर से उसी पुष्प या उसी जाति के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणों के पहुंचने की क्रिया को परागण कहते हैं| परागण प्राकृतिक या प्रेरित दोनों प्रकार का हो सकता है, किंतु अप्राकृतिक या प्रेरित परागण को संकरण कहते हैं|
              प्राकृतिक परागण दो प्रकार का होता है:
(1) स्वपरागण (self-pollination)
(2) पर परागण (cross-pollination)

(1) स्वपरागण (self-pollination)-
स्वपरागण में एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र या उसी पौधे के अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| स्व-परागण की क्रिया केवल उभयलिंगी पुष्पों में ही संभव है| स्वपरागण दो प्रकार का हो सकता है:
(a) एक द्विलिंगी पुष्प के परागकण, उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं|
(b) एक पौधे के पुष्प (चाहे एकलिंगी पुष्प हो या द्विलिंगी) के परागकण उसी पौधे के दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| इस प्रकार के स्वपरागण को सजातपुष्पी या जीटोनोगेमी(Geitonogamy) परागण कहते हैं|
स्वपरागण के लिए पौधों में युक्तियां या अनुकूलन-
स्वपरागण को सफल बनाने के लिए पौधों में निम्नलिखित युक्तियां या साधन पाए जाते हैं-
(1) द्विलिंगता(Bisexuality or Hermaphrodite)
(2) सहपक्वता या समकालपक्वता(Homogamy)
(3) निमीलता(Cleistogamy)

(1) द्विलिंगता(Bisexuality or Hermaphrodite)-
 द्विलिंगी पुष्प में नर तथा मादा जननांग एक ही पुष्प में होते हैं| एकलिंगी पौधों में स्व परागण का प्रश्न ही नहीं उठता|
(2) सहपक्वता या समकालपक्वता(Homogamy)-
स्वपरागण के लिए द्विलिंगी पुष्प में नर तथा मादा जननांग एक साथ परिपक्व होते हैं इसको सहपक्वता कहते हैं|
(3) निमीलता(Cleistogamy)-
कुछ द्विलिंगी पुष्प ऐसे होते हैं जो कभी नहीं खिलते इन पुष्पों को क्लिस्टोगेमस पुष्प कहते हैं| ऐसे पुष्पों में बंद अवस्था में ही परागकोश फट जाते हैं जिससे परागकण पुष्प के वर्तिकाग्र पर बिखर जाते हैं और स्वपरागण हो जाता है|

(2) पर परागण (cross-pollination)
परपरागण में एक पुष्प के परागकण उसी जाति के दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं| अतः दोनों पुष्प दो अलग-अलग पौधों पर लगे रहते हैं चाहे वे एकलिंगी हो या द्विलिंगी| परपरागण क्रिया का मुख्य लक्षण यह है कि इसमें बीज उत्पन्न करने के लिए एक ही जाति के दो पौधों का होना आवश्यक है|
परपरागण की विधियां-
परागकणों को दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र तक पहुंचाने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता होती है| यह साधन है वायु, जल तथा जंतु| वायु तथा जल अजैविक कारक हैं तथा जंतु, परागण के जैविक कारक है| इनके आधार पर परपरागण निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है| 
(1) वायु परागण 
(2) जल परागण 
(3) जंतु परागण

(1) वायु परागण -
पुष्पों में वायु द्वारा होने वाले परपरागण को वायु परागण और पुष्पों को वायुपरागित पुष्प कहते हैं|
(2) जल परागण -
जल परागण केवल जलीय पौधों में मिलता है यह निम्नलिखित दो प्रकार से होता है-
(a) अधोजल परागण या हिपोहाइड्रोफिली
 इनमें परागण की क्रिया जल के भीतर होती है| जैसे- सिरेटोफिल्लम 
(b) अधिजल परागण या इपहाइड्रोफिली
 परागण जल की सतह पर होता है| जैसे- हाइड्रिला
(3) जंतु परागण-
पुष्पों में जंतुओं द्वारा होने वाले परागण को जंतु परागण कहते हैं| जंतु परागण साधारणतया  कीटों, पक्षियों, चमगादड़ों  या घोंघो द्वारा होता है| इस आधार पर यह निम्न प्रकार का होता है-
(a) कीट परागण 
(b) पक्षी परागण 
(c) घोघा परागण 
(d) चींटी परागण 
(e) चमगादड़ परागण

No comments:

Post a Comment