अलैंगिक जनन जनन की एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें एक ही जीव के द्वारा बिना युग्मकों के निर्माण और बिना निषेचन की प्रक्रिया के ही किसी नए जीव का निर्माण हो जाता है|
अलैंगिक जनन में संतति एक ही जनक से बनते हैं| इनके बनने के लिए किसी भी प्रकार के अगुणित युग्मक नहीं बनते| एक जनक के सभी संतति जीवो के लक्षण मातृ जीव के समान होते हैं| जनक एवं संतति जीव अकारिकी एवं आनुवंशिकी दोनों प्रकार से एक समान होते हैं| इसी कारण अलैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न संताने क्लोन कहलाती है|
अलैंगिक जनन के प्रकार -
जीवो में अलैंगिक जनन की प्रमुख विधियां निम्नलिखित हैं-
(1) विखंडन -
इस क्रिया में जनक कोशिका या जनक जीव दो या दो से अधिक भागों में बांट जाता है और प्रत्येक भाग से एक नया जीव बन जाता है| विखंडन निम्न प्रकार हो सकता है-
(A) द्विविखण्डन
(B) बहुविखंडन
(A) द्विविखण्डन -
इस प्रकार के विखंडन में एक कोशिकीय जीव दो समान भागों में बांट जाता है| इस क्रिया में पहले केंद्रक समसूत्री विभाजन द्वारा दो संतति केंद्रों में बटता है और उसके बाद कोशिका द्रव्य भी दो भागों में बट जाता है| दोनों संतति कोशिकाएं दो नए जीव बनाती हैं| संतति जीव आनुवंशिकी तथा आकारिकी में जनक के समान होते हैं| द्विविखंडन बैक्टीरिया, प्रोटोजोआ जंतुओं में पाया जाता है| हरे रंग के शैवाल, हाइड्रा तथा प्लेनेरिया में भी द्विविखंडन द्वारा जनन पाया जाता है|
(B) बहुविखंडन -
जब एककोशिकीय या बहुकोशिकीय जीव का शरीर बहुत से छोटे-छोटे खंडों में बँट जाता है| और इस प्रकार एक जीव से बहुत से संतति जीव बनते हैं तो इस विधि को बहु विखंडन कहते हैं| अमीबा तथा प्लाज्मोडियम (मलेरिया परजीवी) में बहु विखंडन द्वारा जनन होता है|
(2) मुकुलन -
कोशिकाओं या जीव में छोटी सी संरचना उभार के रूप में बनती है इसे मुकुल कहते हैं तथा इस क्रिया को मुकुलन कहते हैं| मुकुल मातृ कोशिका से तुरंत अलग नहीं होती है| मुकुलन की क्रिया यीस्ट कोशिकाओं, हाइड्रा, साइकन (स्पंज) तथा मार्केंशिया में भी पाया जाता है| मुकुलन की क्रिया दो प्रकार की होती है|
(A) बाह्य मुकुलन -
इस प्रकार के मुकुलन में शरीर से बाहर की ओर उभार बनता है जो परिपक्व होकर मातृ शरीर से अलग होकर नया जीव बनाता है|
जैसे- यीस्ट, हाइड्रा में|
(B) एंडोजिनस या आंतरिक मुकुलन -
मार्केंशिया में जेम्मा कप में जेम्मी बनते हैं| जेम्मी आंतरिक मुकुल कहलाते हैं |
(3) खंडन -
पानी, ताप तथा भोजन की अनुकूल परिस्थितियों में स्पाइरोगाइरा, यूलोथ्रिक्स आदि तंतुमय शैवालों तथा कवको के तंतु छोटे-छोटे खंडों में टूट जाते हैं| प्रत्येक खंड में एक या एक से अधिक कोशिकाएं होती हैं| प्रत्येक खंड कोशिका विभाजन करके नया शैवाल तंतु बनाता है|
(4) बीजाणुजनन -
बीजाणु एक कोशिक पतली भित्ति वाली अगुणित अलैंगिक जनन काय होती हैं| यह केवल प्रतिकूल वातावरणीय परिस्थितियों में बैक्टीरिया, शैवाल, कवको, ब्रायोफाइट्स तथा टेरिडोफाइट्स में बनते हैं| प्रकीर्णन द्वारा बीजाणु दूर-दूर फैलते हैं और अनुकूल जगह पर अंकुरित होकर नए पौधे बनाते हैं|
(5) कायिक प्रवर्धन -
कुछ निम्न एवं उच्च श्रेणी के पौधों में मातृ पौधे के किसी भी कायिक भाग से नया पौधा बनता है| इसके सभी लक्षण व गुण मातृ पौधे के समान ही होते हैं| कायिक जनन को कायिक प्रवर्धन के नाम से जाना जाता है| यह अलैंगिक जनन का ही रूपांतर है| जनक पौधे के कायिक अंगों द्वारा नए पौधों का पुनर्जनन कायिक जनन या कायिक प्रवर्धन कहलाता है तथा नए पौधों में उगने की क्षमता वाले इन कायिक अंगों को कायिक प्रवर्ध कहते हैं|
कायिक प्रवर्धन के प्रकार-
यह क्रिया निम्न पादपों में सामान्यतः मिलती है परंतु उच्च पादपों में यह केवल दो प्रकार से होती है|
(1) प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन
(2) कृत्रिम कायिक प्रवर्धन
(1) प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन -
बहुत से पौधों का कोई अंग या रूपांतरित भाग प्राकृतिक रूप से मातृ पौधे से अलग होकर नया पौधा बनाता है| यह क्रिया अनुकूल परिस्थितियों में होती है| पौधे का कायिक भाग जैसे तना, जड़ व पत्ती अंकुरित होकर नया पौधा बनाते हैं| प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन की विधियां निम्न है-
(a) तनो द्वारा कायिक जनन-
जैसे - आलू, अदरक, हल्दी, अरबी, बंडा, लहसुन आदि
(b ) जड़ों द्वारा कायिक जनन-
जैसे - शकरकंद, शीशम आदि
(c ) पत्ती द्वारा कायिक जनन-
जैसे - ब्रयोफिल्लम
(d ) बुलबिल द्वारा कायिक जनन-
जैसे - प्याज, अनानास आदि
(2) कृत्रिम कायिक प्रवर्धन-
मनुष्य ने अपने लाभ के लिए कायिक जनन की अनेक विधियों का विकास किया है इन्हें कायिक जनन की कृत्रिम कायिक जनन विधियां कहते हैं |
कृत्रिम कायिक प्रवर्धन में निम्न विधियों का प्रयोग किया जाता है-:
(a) रोपण
(b) कलिका रोपण या कली लगाना
(c) कलम लगाना
(d) दाब लगाना
(e) वायुदाब या गूँटी बांधना
(a) रोपण -
इस विधि द्वारा एक ही जाति के निम्न किस्म के पौधे को उत्तम किस्म के पौधे में बदल दिया जाता है|
इस विधि में दो अलग-अलग पौधों की शाखाओं को परस्पर इस प्रकार जोड़ा जाता है कि वे एक पौधे के रूप में विकसित हो सके| इसमें घटिया किस्म वाला पौधा मिट्टी में लगा होता है उसे स्कंध कहते हैं तथा दूसरा पौधा (अच्छी किस्म वाला) जिसकी शाखा को स्कंध में जोड़ा जाता है कलम या श्यान कहते हैं| लगभग 4 से 5 सप्ताह के बाद श्यान की टहनी को जोड़ वाले भाग से काटकर अलग कर दिया जाता है| इस प्रकार प्राप्त होने वाले पौधे की जड़ तो स्कंध की होती है परंतु तना, फूल, फल आदि कलम के होते हैं|
(b) कलिका रोपण या कली लगाना -
यह रोपण का ही एक रूपांतरण है| इस विधि में घटिया किस्म के पौधे के तने की छाल में एक गहरा तिरछा काट लगाया जाता है और उसमें उसी जाति की अच्छी किस्म की कलिका को सावधानीपूर्वक रोपित कर देते हैं| कुछ समय बाद कलिका एक नई शाखा के रूप में विकसित हो जाती है| इस अवस्था में घटिया किस्म के पौधे की अन्य शाखाओं को काट दिया जाता है|
(c) कलम लगाना -
इस क्रिया में पुराने स्वस्थ पौधे के तने या शाखा के 20 से 30 सेंटीमीटर लंबे टुकड़े काटकर उन्हें जमीन में आधे गाड़ देते हैं| प्रत्येक टुकड़े में कक्षस्थ कलिका अवश्य होनी चाहिए| कुछ समय बाद इन टुकड़ों के पर्व से जड़े निकलती हैं और कक्षस्थ कलिका से शाखा| इस प्रकार प्रत्येक टुकड़ा एक नया पौधा बनाता है| शाखाओं के इन कलिकायुक्त टुकड़ों को कलम कहते हैं|
(d) दाब लगाना -
मातृ पौधे से जुड़ी हुई शाखाओं में जड़े विकसित करने की विधि को दाब लगाना कहते हैं| इस विधि में पौधे की शाखाओं को झुका कर नम मिट्टी में दबा दिया जाता है| इस दबे हुए भाग की पर्व संधियों से जड़े निकलने लगती हैं| शाखा को काटने पर यह नया पौधा बनाती है| दाब लगाना सामान्यतः फलदार वृक्षों व सजावटी पौधों के प्रवर्धन के लिए किया जाता है|
(e) वायुदाब या गूँटी बांधना-
या विधि काष्टीय वृक्षों में प्रयोग की जाती है क्योंकि इनकी शाखाओं को मोड़कर मिट्टी में दबाना संभव नहीं है| इस विधि में तने के एक भाग के चारों ओर की छाल निकालकर एक चीरा लगाते हैं और इस पर आर्द्र मॉस बाँध देते हैं| शुष्क मौसम में दाब के ठीक ऊपर वाली शाखा से पानी से भरा घड़ा लटका देते हैं| घड़े की तलहटी में छेद कर एक रस्सी द्वारा उसका संपर्क दाब से कर दिया जाता है| कुछ दिन बाद जड़े निकलने पर शाखा को गूटी के ठीक नीचे से काटकर मिट्टी में लगा दिया जाता है|
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